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वाराणसी में 481वां भरत मिलाप उत्सव: श्रद्धा और आस्था का महामिलन, मेघा भगत और तुलसीदास के अनुष्ठान से हुई थी शुरुआत

वाराणसी: विश्व प्रसिद्ध भरत मिलाप का आयोजन वाराणसी के नाटी इमली मैदान में धूमधाम से हुआ। विभिन्न रास्तों से श्रद्धालु इस ऐतिहासिक स्थल पर पहुंच चुके थे।

मैदान और आसपास के मकानों की छतें पहले से ही भर चुकी थीं, और सभी उस भावुक क्षण का इंतजार कर रहे थे जब राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न का मिलन होगा। हर वर्ष होने वाला यह आयोजन धार्मिक महत्व से भरपूर है और काशीवासियों के लिए बेहद खास है।

हालांकि, पुष्पक विमान का गेट खोलने के दौरान भगदड़ मच गई और भीड़ को नियंत्रित करने के लिए पुलिस को हल्का लाठीचार्ज करना पड़ा। इस घटना में कुछ लोगों को मामूली चोटें आईं, लेकिन जल्द ही स्थिति पर काबू पा लिया गया और आयोजन सुचारू रूप से शुरू हो गया।

भावनात्मक मिलन और ऐतिहासिक परंपरा

भरत मिलाप के दौरान, जब दशरथ पुत्र एक-दूसरे से गले मिलते हैं, तो वहां मौजूद हजारों श्रद्धालुओं की आंखें नम हो जाती हैं। यह आयोजन 481 वर्षों से अनवरत रूप से आयोजित हो रहा है और इस वर्ष भी काशीराज परिवार के अनंत नारायण सिंह परंपरानुसार हाथी पर सवार होकर कार्यक्रम में शामिल हुए। इसके बाद जिला प्रशासन के अधिकारियों ने उन्हें सलामी दी।

इस कार्यक्रम का मुख्य आकर्षण राम, लक्ष्मण, भरत, और शत्रुघ्न के मिलन के साथ ही पांच टन वजनी पुष्पक विमान को उठाने का दृश्य होता है। यादव समाज के लोग इस विमान को उठाकर परंपरा का निर्वहन करते हैं। इस आयोजन की शुरुआत 481 साल पहले मेघा भगत और तुलसीदास के अनुष्ठान से हुई थी। आज भी यह मान्यता है कि इस आयोजन के दौरान कुछ क्षण के लिए प्रभु श्रीराम के दर्शन होते हैं, जिसे देखने के लिए हजारों श्रद्धालु जुटते हैं।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

तुलसीदास के समकालीन मेघा भगत ने काशी में रामलीला और भरत मिलाप की परंपरा की शुरुआत की थी। यादव समाज के लोग आज भी इस परंपरा को निभाते हुए अपने खास पहनावे में पुष्पक विमान उठाते हैं। सफेद बनियान, धोती, और सिर पर गमछा बांधे ये लोग इस ऐतिहासिक आयोजन का हिस्सा बनते हैं। बनारस के यादव बंधुओं का इतिहास तुलसीदास के काल से जुड़ा हुआ है, और रामलीला का यह रूप सदियों से बनारस की सांस्कृतिक धरोहर का अभिन्न हिस्सा रहा है।

श्रद्धा और आस्था के इस महामिलन को देखने के लिए हर साल हजारों की भीड़ उमड़ती है, और इस वर्ष भी यह परंपरा पूरे भव्यता और उल्लास के साथ जारी रही।

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